सोनामक्खी एक उपधातु है। इसमें बहुत अल्पांश में स्वर्ण होने तथा इसके गुणों में सोने के गुण कुछ अल्प मात्रा में होने और इसमें स्वर्ण-जैसी कुछ चमक होने से इसको ‘स्वर्ण माक्षिक’ कहते हैं।
शास्त्रों के कथनानुसार स्वर्ण माक्षिक स्वर्ण का उपधातु निश्चित होता है, क्योंकि इसमें कुछ स्वर्ण के गुण और सहयोग होते हैं। परंतु वास्तव में यह लोह धातु का उपधातु है। विश्लेषण करने पर इसमें लौह, गंधक और अल्पांश में तांबे का भाग पाया जाता है। इसको लौह समास निश्चित किया गया है। इस विश्लेषण से भी यह उपधातु निश्चित होता है। स्वर्ण माक्षिक और रौप्य माक्षिक – भेद से इसके दो भेद होते हैं।
जो स्वर्ण माक्षिक बाहर से देखने में स्निग्ध, भारी, नीली- काली चमकयुक्त तथा कसौटी पर रगड़ने पर कुछ-कुछ स्वर्ण-समान रेखा खींचने वाला, कोण रहित, सोने के समान वर्ण वाला हो, उसे स्वर्ण माक्षिक समझें।
स्वर्ण माक्षिक भस्म पूर्णतया आयुर्वेदिक औषधि है, यह विपाक में मधुर, तिक्त, वृष्य, रसायन, योगवाही, शक्तिवर्धक, पित्तशामक, शीतवीर्य, स्तंभक और रक्त प्रसादक है। पाण्डु, कामला, जीर्ण ज्वर, निद्रानाश, दिमाग की गर्मी, पित्त विकार, नेत्र रोग, वमन, उबकाई, अम्लपित्त, रक्तपित्त, व्रणदोष, प्रमेह, प्रदर, मूत्रकृच्छ, शिर:शूल, विष विकार, अर्श, उदर रोग, कण्डू, कुष्ठ, कृमि जैसे अनेकों रोगों में यह आश्चर्यजनक रूप से फायदा करती है।
तो आईए जानते हैं स्वर्ण माक्षिक भस्म के फायदे, नुक़सान, गुण और उपयोग के बारे में।
स्वर्ण माक्षिक का कपड़छन किया हुआ चूर्ण 3 पाव, सेंधा नमक एक पाव मिलाकर लोहे की कड़ाही में डालकर, ऊपर से बिजौरा या जम्बीरी नींबू का रस इतना डालें कि चूर्ण डूब जाए। फिर इस कड़ाही को अग्नि पर रख कलछी से चलाते जाएं। जब चूर्ण अग्निवर्ण हो जाए तब चलाना बंद कर आँच भी बंद कर दें। स्वांग-शीतल होने पर जल से चार-पांच बार धो दें, जिससे सेंधा नमक का अंश निकल जाए। जल को सावधानी से निकालें अन्यथा स्वर्ण माक्षिक का महीन चूर्ण भी जल के साथ जाएगा। फिर इसको धूप में सुखाकर रख लें।
-र. सा. सं.
भस्म बनाने की विधि
शुद्ध स्वर्ण माक्षिक भस्म आधा सेर, शुद्ध गंधक एक पाव- दोनों एकत्र मिला बिजौरा नींबू के रस में डालकर, 1 दिन बराबर मर्दन कर इसकी छोटी-छोटी टिकिया बनाकर, सुखाकर, सराब-संपुट में बंद कर कपड़मिट्टी करके सुखा लें। इसके बाद गजपुट में रखकर फूँक दें। स्वांग-शीतल होने पर निकाल कर, ग्वारपाठा में मर्दन कर टिकिया बना सुखाकर सराब-संपुट में बंद कर लघुपुट में रखकर आँच दें। इस प्रकार प्रायः 10 पुट में जामुन के रंग की भस्म तैयार हो जाती है। स्वर्ण माक्षिक की भस्म एक बार में आधा सेर या 3 पाव से ज्यादा नहीं बनानी चाहिए।
-सि. यो. सं.
स्वर्ण माक्षिक भस्म बनाने की दूसरी विधि
स्वर्ण माक्षिक कौण रहित डाली के रूप में आता है। इसमें स्वर्ण जैसी चमक प्रायः दिखाई देती है। इसके छोटे-छोटे टुकड़े करके उनमें मिले हुए पत्थर अलग निकालकर बाद में चमकदार एवं अच्छे माल को इमाम दस्ते में कूटकर मूलद्रव्य से चतुर्थांश सेंधा नमक तथा नींबू का रस या इमली का पानी मिलाकर सराबों में बन्द कर तीव्र अग्नि में पुट देवें। शीतल होने पर निकालकर घुटाई करके पुनः इमली के पानी की भावना देकर पुनः पुट दें। शीतल होने पर निकालकर घुटाई कर एक कड़ाही में डालकर पानी डालकर धुलाई करें। ऐसा करने से नमक पानी के साथ घुलकर निकल जाएगा। सब नमकीन पानी निकल जाने के बाद सुखाकर घृतकुमारी रस या एरण्ड बीज-क्वाथ की भावना देकर पुट देवें। इस प्रकार कुल 7 पुट लगने पर पूर्व विधिवत् छानकर सुखा कर घुटाई कर लें। इस प्रकार यह काले जामुन के रंग की भस्म बनती है।
-र. सा. सं. के आधार पर स्वानुभूत
स्वर्ण माक्षिक भस्म के फायदे, गुण और उपयोग | Swarna makshik bhasma benefits in Hindi
कुछ चिकित्सकों का विश्वास है कि स्वर्ण माक्षिक भस्म स्वर्ण भस्म के अभाव में इसलिए दिया जाता है कि इसमें स्वर्ण का कुछ अंश रहता है, किंतु यह सिर्फ भ्रम है, इसमें कोई सच्चाई नहीं है। वास्तव में स्वर्ण माक्षिक लौह का सौम्य कल्प है। हाँ, लौह में जो कठोरता, उष्णता और तीव्रता आदि गुण रहते हैं, वह इस भस्म में नहीं हैं। लौह का अति सौम्य कल्प होने से यह कमजोर, सुकुमार एवं नाजुक स्त्री-पुरुष तथा बालकों के लिए भी अत्यंत उपयोगी है।
स्वर्ण माक्षिक भस्म के फायदे और सेवन विधि | Swarna makshik bhasm ke fayde or Sevan vidhi
विपाक में मधुर, तिक्त, वृष्य, रसायन, योगवाही, शक्तिवर्धक, पित्तशामक, शीतवीर्य, स्तंभक और रक्त प्रसादक है। पाण्डु, कामला, जीर्ण ज्वर, निद्रानाश, दिमाग की गर्मी, पित्त विकार, नेत्र रोग, वमन, उबकाई, अम्लपित्त, रक्तपित्त, व्रणदोष, प्रमेह, प्रदर, मूत्रकृच्छ, शिर:शूल, विष विकार, अर्श, उदर रोग, कण्डू, कुष्ठ, कृमि, मदात्यय और बाल रोगों में यह विशेष उपयोगी है। विशेषकर कफ पित्त जन्य रोगों में यह बहुत लाभदायक है।
यद्यपि पाण्डु, कामला आदि रक्ताल्पता की प्रधान औषध लौह भस्म है। किंतु यदि लौह भस्म से रोग का शमन ना हो, तो लौह भस्म का सौम्य कल्प मण्डूर भस्म का प्रयोग करें। अगर मण्डूर से भी सफलता नहीं मिले तो स्वर्ण माक्षिक भस्म का प्रयोग करना चाहिए। स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, कसीस भस्म आधी रत्ती, माणिक्य भस्म आधी रत्ती के साथ मधु में मिलाकर देने से रक्ताणुओं की वृद्धि होकर पाण्डु रोग समूल नष्ट हो जाता है। बच्चों को गहरी निंद्रा लाने का तो इसमें प्रधान गुण है।
केवल पित्तविकार या कफ-पित्त संसर्गज विकार में इसकी भस्म अच्छा काम करती है। अतः पित्तजशिर: शूल या अम्ल पित्त अथवा पित्तज परिणामशूल में इसका अनुपान-भेद से उपयोग होता है।
वात-पित्तात्मक अर्थात वात और पित्त के कारण सिर में दर्द हो तो सूतशेखर रस के साथ स्वर्ण माक्षिक भस्म का उपयोग होता है। किंतु जिस शिरो रोग में वमन अर्थात उल्टी, मुंह का स्वाद कसैला हो, खाने में रुचि ना हो और उल्टी होते ही सिर दर्द कम हो जाए आदि लक्षण उपस्थित हो तो उसमें सूतशेखर रस साथ में नए देकर केवल स्वर्ण माक्षिक भस्म देना ही ठीक रहता है। पुराने सिर दर्द में इस भस्म से बहुत ही फायदा होता है।
पित्तजन्य नेत्र रोग ( पित्त बढ़ने के कारण होने वाले आंखों के रोग ) में स्वर्ण माक्षिक भस्म का उपयोग (खाने और आंजने) दोनों तरह से करना चाहिए। इसमें भी प्रधान दोष पित्त और रक्त की विकृति ही है। अतः स्वर्ण माक्षिक भस्म के सेवन से अत्यंत लाभ होता है।
क्षयरोग
अनुलोम अथवा प्रतिलोम क्षय दोनों प्रकार के क्षय में धातुओं का क्षय होकर रोग निरंतर अशक्त हो जाता है। मंद ज्वर हर वक्त बना रहता है। खांसी तथा रक्तपित्त आदि उपद्रव भी हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, स्वर्ण बसंत मालती रस एक रत्ती, प्रवाल भस्म एक रत्ती, चवनप्राश एक तोला, मधु में मिलाकर देने से आश्चर्यजनक रूप से लाभ होता है। क्षय की प्रथम तथा द्वितीय अवस्था में रोगियों को इस योग से कुछ समय निरंतर सेवन से रोग मुक्त होते देखा गया है।
पित्त दूषित हो जाने पर रक्त और रक्त वाहिनी शिराएं और हृदय ये सब (जो उसके आश्रम में रहने वाले हैं) दूषित हो जाते हैं। इसके दूषित होने पर अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं और जैसे-जैसे ये रोग पुराने होते जाते हैं, वैसे-वैसे हाथ पाँव और मुंह पर सूजन आने लगती है। ऐसी दशा में स्वर्ण माक्षिक भस्म देने से अति शीघ्र लाभ होता है। क्योंकि स्वर्ण माक्षिक भस्म हृदय तथा रक्त प्रसादक होने के कारण इन सब विकारों को दूर करने का काम करती है।
जब पित्त विदग्ध होकर रक्त में जा मिलता है, तब रक्त वाहिनी शिराएं पतली हो जाती हैं और रक्त में दूषित पित्त की गर्मी अधिक बढ़ जाने से रक्त वाहिनी की पतली शिराएं फूट जाती हैं। जिसके द्वारा दूषित रक्त का प्रवाह होने लगता है। यह रक्त अधोमार्ग (गुदा, लिंग) अथवा उर्ध्वमार्ग (मुख, कान, नाक आदि) द्वारा निकलने लगता है। दोषों के विशेष होने से रोम छिद्रों द्वारा भी निकलने लगता है। यही “रक्तपित्त” है। इस रोग में स्वर्ण माक्षिक भस्म से बहुत फायदा होता है। इससे दूषित पित्त का शमन होकर रक्त भी गाढ होने लगता है। जिससे रक्त वाहिनी शिराएं पुष्ट होती हैं और उन में रक्त को अपने अंदर धारण करने की शक्ति उत्पन्न होती है, फिर रक्त स्राव होना अपने आप बंद हो जाता है।
पेट के अंदर आमाशय बढ़ जाने और पेट के भीतर त्वचा विकृत् होने तथा उदर में व्रण हो जाने से अम्लपित्त रोग हो जाता है। शास्त्र में इन सब की गणना अम्लपित्त में की गई है। व्रणजन्य अम्लपित्त को छोड़कर शेष अम्लपित्तों में स्वर्ण माक्षिक भस्म बहुत ही गुणकारी है।
आमाशय बढ़कर उत्पन्न होने वाले अमल पित्त रोग में यह अपने स्तंभक और शामक तथा स्वादु गुण के कारण पित्त को नियमित करती है तथा उसमें सौम्यता स्थापित करती है। फिर भीतर पिच्छिल (स्निग्ध) त्वचा की विकृति से जो अम्लपित्त होता है, उसमें स्वर्ण माक्षिक अपने लवणत्व के प्रभाव से फायदा करती है। उदर – पित्तोत्पादक अथवा रसोत्पादक पिण्ड की विकृति होने से उत्पन्न हुई विकृति में स्वर्ण माक्षिक भस्म में विद्यमान लौह अंश और वल्यत्व गुण के कारण आकुंचन (खिंचाव) तथा बल प्राप्ति होकर कार्य होता है।
इस भस्म में लौह के अंश होने से यह शक्तिवर्धक है। नाक से रक्त आता हो, चक्कर आता हो, कमजोरी ज्यादा मालूम होती हो, ऐसे समय में स्वर्ण माक्षिक भस्म देने से अत्यधिक फायदा होता है।
जीर्ण ज्वर में जबकि दोष धातुगत होकर धातुओं का शोषण कर रोगी को विशेष कमजोर बना देते हैं। उठने बैठने एवं जरा भी चलने फिरने में रोगी विशेष कमजोरी का अनुभव करता हो, तो स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती, प्रवाल भस्म 2 रत्ती, सितोपलादि चूर्ण 1 माशा शहद के साथ देने से उत्तम लाभ होता है।
शराब आदि का सेवन करने से मदात्य रोग हो जाता है। इसमें स्वर्ण माक्षिक भस्म के सेवन से शराब के सेवन से होने वाली अंदरूनी गर्मी नष्ट हो जाती है।
विसूचिका
अजीर्णजन्य विसूचिका में वमन बंद करने के लिए स्वतंत्र रूप से या किसी औषधि (सुतशेखर रस आदि) के साथ इसे देने से वमन आदि उपद्रव शीघ्र शांत हो जाते हैं। विसूचिका रोग शांत हो जाने के बाद निर्बलता दूर करने के लिए भी स्वर्ण माक्षिक भस्म का उपयोग करना हमेशा फलदाई होता है।
वातजन्य या वात-पित्तजन्य हृदय रोग
हृदय चंचल हो, बार-बार घबराहट होना, जम्भाई आना, पसीना आना, सर्वांग में कम्प होना इत्यादि लक्षण उत्पन्न होने पर स्वर्ण माक्षिक भस्म देने से बहुत अच्छा लाभ होता है। यह भसम हृदय की चंचलता दूर कर हृदय को शुद्ध रक्त द्वारा पुष्ट बनाता है।
शीत ज्वर में
कुनैन सेवन करने के बाद प्लीहा वृद्धि होकर प्लीहा बढ़ जाने से पेट बढ़ गया हो और सभी अंगों में सूजन आ गई हो, घबराहट आदि लक्षण उत्पन्न हो गए हों, तो ऐसी स्थिति में स्वर्ण माक्षिक भस्म का उपयोग करना श्रेष्ठ कर होता है। क्योंकि कुनैन के अति सेवन से उत्पन्न विकार इसके सेवन से दूर हो जाते हैं। कुनैन जन्य विकारों को दूर करने के लिए इससे अच्छी दवा और कोई नहीं है।
रक्तविकार में
रक्त विकार में इस भस्म का सेवन करना हमेशा अच्छा रहता है। क्योंकि यह रक्त प्रसादक है अर्थात रक्त के विकार को दूर कर परिशुद्ध रक्त शरीर में संचालित करती है। जिससे दूषित रक्त से होने वाले संपूर्ण विकार शांत होकर शरीर सुंदर और स्वस्थ बन जाता है।
पाण्डु और कामला रोग में
स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती, मंडूर भस्म एक रत्ती शहद के साथ मिलाकर अथवा कच्ची मूली का रस निकालकर उसके साथ देना चाहिए। जीर्ण ज्वर में स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती, वर्द्धमान पिप्पली के साथ देने से अत्यंत लाभ होता है।
निद्रा नाश एवं पित्तज उन्माद में
रात्रि को सोते समय स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती, जटामांसी, नेत्रबाला और रक्त चंदन के क्वाथ में शहद मिलाकर देने से नींद अच्छी आने लगती है। दिमाग की गर्मी शांत करने के लिए स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, कुष्माण्डावलेह 6 माशे के साथ देना अत्यंत गुणकारी है। स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती, प्रवाल चंद्रपुटी 2 रत्ती को साथ मिलाकर दूध के साथ देने से अनिद्रा रोग में बहुत अच्छा लाभ होता है।
पित्त विकार में
स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, शर्बत बनप्सा या शर्बत अनार के साथ देना बहुत ही लाभदायक है। आंखों के रोग में आंख की जलन और लाली दूर करने के लिए स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती मक्खन और मिश्री मिलाकर सेवन कराना चाहिए। साथ ही गुलाब जल भी आंख में डालते रहें, इससे अति शीघ्र लाभ होगा। वमन एवं उबकाई में स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, बेर की गुठली की मींगी एक नग के साथ देने से बहुत अच्छा फायदा होता है।
अम्लपित्त की सभी अवस्था में स्वर्ण माक्षिक भस्म का मिश्रण लाभप्रद है। यदि केवल स्वर्ण माक्षिक भस्म ही देना हो तो स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, आंवले के साथ दें। आंवला रस के अभाव में शहद के साथ दें।
रक्तपित्त में स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, प्रवाल चंद्रपुटी एक रत्ती, गिलोय सत्व 3 रत्ती, दुर्वा स्वरस अथवा वासा (अडूसा) के पत्तों के रस के साथ शहद मिला कर देना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
रक्त विकार में स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती शहद में मिलाकर ऊपर से महामंजिष्ठादि अर्क दो तोला अथवा सारिवादद्यासव 2 तोला बराबर मात्रा में पानी के साथ देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है।
पित्तज प्रमेह में स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, बंग भस्म आधी रत्ती, गिलोय सत्व 3 रत्ती, मुक्ताशुक्ति पुष्टि एक रत्ती मिलाकर द्राक्षावलेह अथवा शरबत बनप्सा के साथ देने से आश्चर्यजनक रूप से फायदा होता है।
मूत्रकृच्छ्र में स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, यवक्षार 4 रत्ती में मिलाकर पानी के साथ देना चाहिए। पित्तज सिर दर्द में स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती, शुक्ति भस्म एक रत्ती मक्खन और मिश्री के साथ देने से विशेष लाभ होता है। विष विकार में स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती शहद के साथ कुछ दिनों लगातार सेवन कराने से बहुत अच्छा लाभ होता है।
रक्तार्श और पित्तार्श में
स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती, नागकेसर असली, तेजपात और छोटी इलायची का चूर्ण दो दो रत्ती शहद के साथ देने से बहुत लाभ होता है।
उदर रोग में यकृत् और प्लीहा बढ़ जाने पर स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, शंख भस्म 2 रत्ती, मूली क्षार दो रत्ती, गोमूत्र के साथ देने से विशेष रूप से लाभ होता है।
कृमि विकार में स्वर्ण माक्षिक भस्म एक रत्ती, वायविडंग चूर्ण 3 रत्ती में मिलाकर तुलसी पत्र रस के साथ देने से अत्यंत लाभ होता है।
मदात्यय रोग में
स्वर्ण माक्षिक भस्म में एक रत्ती, ब्राह्मी चूर्ण 4 रत्ती, कुटकी और पुनर्नवा गिलोय (गुर्च) के क्वाथ के साथ दें। मसूरिका रोग में स्वर्ण माक्षिक भस्म 2 रत्ती, मोती पिष्टी आधी रत्ती, कचनार छाल के क्वाथ के साथ देने से मसूरिका का आभ्यन्तरीय विकारी अतिशीघ्र बाहर निकल आता है।
कुनैन के विकार में
कुनैन के विकार में स्वर्ण माक्षिक भस्म में एक रत्ती, मिश्री एक माशे में मिलाकर गौ-दुग्ध के साथ देने से कुनैन जनित विकार शांत हो जाते हैं।
यौन रोगों में स्वर्ण माक्षिक भस्म के फायदे
यह भस्म शक्तिवर्धक, शीतवीर्य तथा स्तंभक जैसे गुणों से भरपूर है। इसके इन्हीं गुणों के कारण यह लगभग सभी तरह के वीर्य दोषों का नाश करके स्तंभन शक्ति को बढ़ाने का काम करती है।
एक से दो रत्ती भस्म शहद के साथ सेवन करने से यह आश्चर्यजनक रूप से फायदा करती है।
स्वर्ण माक्षिक भस्म की मात्रा अनुपान और सेवन विधि
एक से दो रत्ती मधु ( शहद ) या गिलोय सत्व मक्खन मिश्री आदि के साथ अथवा रोगानुसार अनुपान के साथ दें।
स्वर्ण माक्षिक भस्म के नुकसान
1 – स्वर्ण माक्षिक भस्म वैसे तो पूर्णता आयुर्वेदिक भस्म है। फिर भी इसके इस्तेमाल से पहले अपने नजदीकी आयुर्वेदिक चिकित्सक से परामर्श अवश्य कर लें।
2 – गर्भवती महिलाएं और स्तनपान कराने वाली महिलाएं इसके सेवन से पहले अपने डॉक्टर से सलाह अवश्य लें, उसके बाद ही इसका सेवन करें।
यह भस्म बिना डॉक्टर की पर्ची के बाजार से आसानी से आपको मिल जाएगी। आप इसे अमेजॉन से ऑनलाइन भी बड़ी आसानी से खरीद सकते हैं अमेजॉन पर 10 ग्राम की डब्बी की कीमत ₹110 है।
विशेष नोट – स्वर्ण माक्षिक भस्म का प्रयोग करने से पहले अपने नजदीकी आयुर्वेदिक चिकित्सक से परामर्श अवश्य कर लें। उसके बाद ही इसका सेवन करें।
संदर्भ:- आयुर्वेद-सारसंग्रह श्री बैद्यनाथ भवन लि. पृ. सं. 215